जलवायु
इसकी खेती गर्म जलवायु तथा 50-60 से.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छी तरह से की जा सकती है। बाजरे की फसल भारी वर्षा वाले उन क्षेत्रों में अच्छी तरह की जा सकती है, जहाँ पर पानी का भराव न हो। इस फसल के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 320-370 सें. माना गया है, इसलिए इसकी बुवाई जुलाई माह में कर देनी चाहिए।
मृदा (मिट्टी)
बाजरा की फसल जल निकास वाली सभी तरह की भूमियों में उगाई जा सकती है। बाजरा के लिए भारी मृदा अनुकूल नहीं रहती है। बाजरा के लिए अधिक उपजाऊ भूमियों की भी आवश्यकता नहीं होती है, इसके लिए बलुई दोमट मृदा अत्यन्त उपयुक्त होती है।
फसल चक्र
मृदा की उर्वरता बनाए रखने के लिए फसल चक्र अपनाना महत्वपूर्ण है। बाजरा के लिए एक वर्षीय फसल चक्र अपनाना ठीक है, जैसे –
बाजरा – गेहूँ या जौं
बाजरा – चना या मटर या बरसीम
बाजरा – गेहूँ – मक्का (चारा के लिए)
बाजरा – मसूर – मूंग
उन्नत किस्में
विभिन्न राज्यों के लिए बाजरे की उपयुक्त संकर किस्में निम्न हैं –
राजस्थान – आर एच डी 30, आर एच डी 21
उत्तर प्रदेश – पूसा 415
हरियाणा – एच एच बी 50, एच एच बी 67, पूसा 23, पूसा 605, एच एच बी 68, एच एच बी 117, एच एच बी 67 इम्प्रूव्ड
गुजरात – पूसा 23, पूसा 605, पूसा 415, पूसा 322, जी एच बी 15, जी एच बी 30, जी एच बी 318, नंदी 8
महाराष्ट्र – पूसा 23, एल एल बी एच 104, श्रद्धा, सतूरी, एम एल बी एच 285
कर्नाटक – पूसा 23
आन्ध्र प्रदेश – आई सी एम वी 155, आई सी एम वी 221
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संकुल किस्में
राजस्थान – राज बाजरा चरी 2, राज 171, पूसा कम्पोजिट 266, पूसा कम्पोजिट 643
उत्तर प्रदेश – पूसा कम्पोजिट 383, पूसा कम्पोजिट 266, पूसा कम्पोजिट 234
हरियाणा – एच सी 4, एच सी 10, पूसा कम्पोजिट 383, पूसा कम्पोजिट 266, पूसा कम्पोजिट 443
गुजरात – पूसा कम्पोजिट 383, पूसा कम्पोजिट 266
महाराष्ट्र – पूसा कम्पोजिट 383, पूसा कम्पोजिट 612, आई सी टी पी 8203
पूसा संस्थान द्वारा विकसित बाजरा की प्रमुख किस्मों का उल्लेख सारणी 1 में किया गया है।
सारणी 1 – पूसा संस्थान द्वारा विकसित बाजरा की प्रमुख किस्में
क. बारानी एवं सिंचित अवस्था के लिए
किस्म | अनुमोदित वर्ष | अनुमोदित क्षेत्र/परिस्थिति | उपज (क्विं/है0) | विशेषताएं |
संकर बाजरा पूसा 415 | 1999 | राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं दिल्ली/ बारानी एवं सिंचित अवस्थाओं में बुवाई के लिए | 23-25 | यह किस्म 75-78 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है तथा डाउनी मिल्ड्यू रोग की प्रतिरोधी है तथा इस किस्म में सूखा के प्रति सहिष्णुता है। |
संकर बाजरा पूसा 415 | 1999 | राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं दिल्ली/ बारानी एवं सिंचित अवस्थाओं में बुवाई के लिए | 22-24 | यह किस्म 74-80 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है तथा डाउनी मिल्ड्यू रोग की प्रतिरोधी है तथा बारानी एवं सिंचित अवस्थाओं में इसका अच्छा प्रदर्शन रहता है। |
संकुल बाजरा पूसा 383 | 2001 | राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं दिल्ली/ बारानी एवं सिंचित अवस्थाओं में बुवाई के लिए | 22-24 | किसान थोड़े से प्रशिक्षण से अपनी उपज को बीज के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। यह एक दोहरे उपयोग वाली किस्म है तथा दानों के अलावा इसका तना पशुओं का पौष्टिक आहार है। |
संकुल बाजरा पूसा 612 | अप्रैल, 2008 में चिन्हित की गई | महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश/बारानी एवं सिंचित अवस्थाओं में बुवाई के लिए | 25 | यह एक दोहरे उपयोग वाली किस्म है, जो चारा तथा दानों के रूप में प्रयोग की जा सकती है। यह किस्म 80-85 दिनों में पकती है तथा डाउनी मिल्ड्यू बीमारी के प्रति प्राकृतिक परिस्थितियों में प्रतिरोधक है। यह सामान्य व पछेती बुवाई के लिए उपयुक्त है। |
पूसा कम्पोजिट 612 | 2010 | महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक व आन्ध्र प्रदेश में असिंचित व सिंचित अवस्था में बुवाई के लिए सामान्य व देरी से बुवाई की अवस्था में | 25 | दाने व चारे दोनों के लिए प्रयुक्त किया जाता है, पकने का समय 80-85 दिन, पाउडरी मिल्ड्यू (चूर्णिल आसिता) के लिए प्रतिरोधी। |
ख. बारानी अवस्था के लिए
संकुल बाजरा पूसा 443 | 2008 | राजस्थान, गुजरात, हरियाणा/बारानी अवस्थाओं में बुवाई के लिए | 18 | यह एक शीघ्र पकने व बढ़ने वाली किस्म है, जो डाउनी मिल्ड्यू बीमारी की प्रतिरोधी है तथा जल अभाव वाली परिस्थितियों, जहाँ 400 मि0मी0 से कम वर्षा होती है, के लिए उपयुक्त है। |
खेत की तैयारी
एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। इसके बाद दो-तीन जुताइयाँ, देशी हल, हैरो या कल्टीवेटर चलाकर उसके साथ पाटा लगाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। दीमक से बचाव के लिए आखिरी जुताई के समय 25 कि.ग्रा. हेक्टेअर की दर से फोरेट को खेत में छिड़क देना चाहिए।
बुवाई
उत्तरी भारत में बाजरे की बुवाई मानसून की पहली बरसात के साथ कर देनी चाहिए। बुवाई के लिए 5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेअर बीज की आवश्यकता होती है। किसी कारण से बाजरा की बुवाई समय पर नहीं की जा सके, तो बाजरे की फसल देरी से बोने की अपेक्षा उसे रोपना अधिक लाभप्रद होता है। एक हेक्टेअर क्षेत्र में पौधे रोपने के लिए लगभग 500-600 वर्ग मीटर में 2-2.5 कि.ग्रा. बीज जुलाई माह में बोया जाना चाहिए। लगभग 2 से 3 सप्ताह की पौध रोपनी चाहिए। जब पौधों को क्यारियों से उखाड़ें, तो क्यारियों को नम बनाए रखना चाहिए ताकि जड़ों को क्षति न पहुँचे। जहाँ तक सम्भव हो, रोपाई वर्षा वाले दिन करनी चाहिए। पंक्तियों से पंक्यिों की दूरी 50 से.मी. एवं पौधे से पौध की दूरी 10 से.मी. रखते हुए एक छेद में केवल एक पौधा रोपें। जुलाई के तीसरे सप्ताह से अगस्त के दूसरे सप्ताह तक रोपाई करने से अच्छी पैदावार मिलती है।
पोषक तत्व प्रबन्धन
सिंचित क्षेत्र के लिए: नाइट्रोजन – 80 कि.ग्रा., फाॅस्फोरस – 40 कि.ग्रा. व पोटाश – 40 कि.ग्रा. प्रति
हेक्टेअर
बारानी क्षेत्रों के लिए: नाइट्रोजन – 60 कि.ग्रा., फाॅस्फोरस – 30 कि.ग्रा. व पोटाश – 30 कि.ग्रा. प्रति
हेक्टेअर
सभी परिस्थितियों में नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फाॅस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा लगभग 3-4 से.मी. की गहराई पर डालनी चाहिए। नाइट्रोजन की बची हुई मात्रा अंकुरण से 4-5 सप्ताह बाद खेत में बिखेरकर मिट्टी में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए।
जल प्रबन्धन
जिन स्थानों पर सिंचाई का साधन है, वहाँ पर फूल आने की स्थिति में सिंचाई करना लाभप्रद होता है। वर्षा बिल्कुल न हो, तो 2-3 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पौधों में फुटान होते समय, बालियाँ निकलते समय तथा दाना बनते समय नमी की कमी नहीं होनी चाहिए। बालियाँ निकलते समय नमी का विशेष ध्यान रखना चाहिए। बाजरा जल भराव से भी प्रभावित होता है, अतः ध्यान रहे कि खेत में इकट्ठा न होने पाये।
खरपतवार प्रबन्धन
एक कि.ग्रा. एट्राजिन प्रति हेक्टेअर के हिसाब से 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करते हैं। यह छिड़काव बुवाई के बाद तथा अंकुरण से पूर्व करते हैं। इसके साथ-साथ 30-40 दिन के अन्दर एक बार खुरपी या कसौला से खरपतवार निकाल देने चाहिए।
कीट प्रबन्धन
साधारणतया बाजरा की फसल में कीट पतंगों से अधिक नुकसान नहीं होता है, लेकिन अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए फसल की कीटों से देखभाल करना आवश्यक है। बाजरा की फसल में निम्न कीटों का प्रायः असर देखा गया है
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दीमक
दीमक के प्रकोप को रोकने के लिए 3-4 लीटर प्रति हेक्टेअर के हिसाब से क्लोरोपाइरीफाॅस का पौधों की जड़ों में छिड़काव करना चाहिए।
तना मक्खी
इसकी गिडारें तथा इल्लियां प्रारम्भिक अवस्था में पौधों की बढ़वार को काट देती हैं, जिससे पौधा सूख जाता है। इसकी रोकथाम के लिए 15 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेअर की दर से फोरेट या 25 कि.ग्रा. फ्युराडान (3 प्रतिशत) दानेदार को खेत में डालना चाहिए।
तना बेधक
इसका असर पत्तियों पर अधिक होता है तथा बाद में गिडार तने को भी खाती है। इसकी रोकथाम के लिए एक लीटर मोनोक्रोटोफास का 600-800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
मिज
इसका असर प्रायः बालियों के आते समय देखा गया है। इसके साथ-साथ पत्तियों को खाने वाले कीटों का असर भी दिखाई दे, तो 3 प्रतिशत फोरेट का 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेअर की दर से धूल छिड़कना चाहिए।
रोग प्रबन्धन
हरित बाली रोग – यह फफूंदी से पैदा होने वाला रोग है। इसे मृदुरोमिल आसिता भी कहते हैं। इसके प्रभाव से पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है, पौधों की बढ़वार रुक जाती है। सुबह के समय पत्तियों की निचली सतह पर एक सफेद पाउडर जैसा पदार्थ दिखाई देता है। कभी-कभी प्रभावित पौधों में बालियाँ नहीं बनती हैं। जब यह बीमारी फसल पर बालियाँ आने की अवस्था में आक्रमण करती हैं, तो इसे हरी बालियों वाली बीमारी कहते हैं, क्योंकि इसमें बालियों पर दानों के स्थान पर छोटी-छोटी हरी पत्तियाँ उग आती हैं। खेत में रोगग्रस्त पौधों को समय-समय पर उखाड़ कर जला देना चाहिए। कम से कम तीन वर्ष का फसल चक्र भी रोग को रोकने मेें सहायक होता है। बोने से पहले बीजों को अप्रोन-35 एस डी या रिडोमील एम जेड-72 से 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. की दर से उपचारित करें। रोग की व्यापकता को कम करने के लिए रोग के प्रारम्भिक लक्षण दिखाई देते ही कवकनाशी रिडोमील एम जेड-72 (2.5 ग्रा./लीटर पानी) से छिड़काव करना चाहिए।
अर्गट
यह बीमारी फसल पर बालियाँ बनने की अवस्था में नुकसान पहुँचाती है। इस बीमारी के लक्षण के रूप में बालियों पर शहद जैसी चिपचिपी बूँदें दिखाई देती हैं। शहद के समान वाला यह पदार्थ कुछ दिनों बाद सूखकर गाढ़ा पड़ जाता है, इसे अर्गट के नाम से जाना जाता है। अर्गट कटाई के समय खेत की मिट्टी में मिल जाता है और अगले वर्ष भी बाजरा की फसल को नुकसान पहुँचाता है। इसकी रोकथाम के लिए बाजरा की बुवाई जुलाई के पहले पखवाड़े में कर दें, ताकि फसल में फूल आने के समय मौसम अधिक नम व ठण्डा न रहे। रोग के प्रकोप को कम करने के लिए कम से कम तीन वर्ष का फसल चक्र अपनाना चाहिए। खेत से रोगग्रस्त बालियों को समय-समय पर काट कर जला देना चाहिए। बीजों में मिले रोगजनक स्केलेरोशिया को दूर करने के लिए बीजों को 10 प्रतिशत नमक के घोल में डालकर अलग कर देना चाहिए। रोग की व्यापकता को कम करने के कलए कवकनाशी बाविस्टीन 1 कि.ग्रा. 1000 लीटर पानी में प्रति हेक्टेअर की दर से छिड़काव करना चाहिए तथा बीज को बाविस्टीन (2 ग्रा./कि.ग्रा.) से उपचारित करें।
कटाई एवं गहाई
जब फसल पककर तैयार हो जाए, तो उस अवस्था में बालियों को काटकर अलग कर लेना चाहिए। इन बालियों को एक जगह खलिहान में इकट्ठा करके सुखा लें और थ्रेशर से दाना अलग कर लेते हैं।
उपज
यदि उन्नत सस्य विधियाँ अपनाकर बाजरा की फसल उगाई जाए, तो सिंचित अवस्था में इसकी उपज 30-35 क्विंटल दाना तथा 100 क्विंटल सूखा चारा प्रति हेक्टेअर तथा असिंचित अवस्था में 15-20 क्विंटल दाना तथा 60-70 क्विंटल सूखा चारा प्रति हेक्टेअर मिल जाता है।